ब्राहमण पंचगौड़ीय+पंचद्रविड़= कुल१० प्रकार हैं,
फिर हर एक में ३+१३=१६ इस प्रकार कुल १६० गोत्रीय ब्राह्मण जातियाँ हैं
फिर उनमें ४ से १० तक उपजातियाँ। कुल मिलाकर ३००-४०० प्रकार के ब्राह्मण।
फिर उनमें से अधिकांश एक दूसरे से भोजन पानी,, वैवाहिक संबंध तक नहीं रखते। ह
फिर ये हँसने लायक यह है किस गोत्र, प्रवर, बिस्वा, बिस्वांश का ब्राह्मण और उनमें एकता !, उपर से अध्यक्ष आश्चर्यजनक है !
वैसे #अखिलभारतीय लगा कर हर जाति धर्म वर्ण संप्रदाय के भारत भर मे हजारों संगठन भरे पड़े है और ज्यादातर ऐसे संगठन कायदे से किसी एक जिले के धर्म जाति विशेष के लोगों का भी प्रतिनिधित्व भी नही करते, साथ ही अन्य प्रांतों के किसी संगठन से कोई तालमेल नही होता है ऐसा भाषाई दिक्कतों का कारण भी हो सकता है।
जैसे ताजा उदाहरण युं समझे राजपूत करणी सेना का उत्तर की, रघुवंशी सेना व अ भा क्षत्रिय महासभा कोई जान पहचान दखल प्रभाव एक दूसरे प्रांत में नही हैं
इसी तरह मप्र, बिहार व उत्तर प्रदेश के कृष्णसभा, यदुवंशी व लोरिक दल का कोई लेनदेन नही है ना कोई बहुत बड़ी संख्या में जानता मानता तक है
और सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य सभा का काछी कोईरी महासभा दूर दूर तक कोई नाम लेवा तक नही है
वैश्य महासभा, वणिक महासभा,अग्रसेनी आदि हजारों संगठन है कोई किसी की नही सुनता ना ही जनता राजनीतिक मामलों कुछ सुनने को तैयार रहती है
अब संप्रदाय व धर्म के आधार पर भी जान सकते है आंध्र व कर्नाटक के प्रसिद्ध श्रीराम सेना का और उत्तर के हिंदू चेतना दल का कोई एक दूसरे से मेल मिलााप नहीं ना ही जनता सुनती हैै
इसी तरह मुसलमानों के संगठन सुन्नी, शिया व बहाब बोर्ड है जो कि हर राज्यों में काश्मीर असम कर्नाटक केरल तक अलग अलग हैं सब ने नाम के पहले आल इंडिया लगा रखा है इत्ताहादुल, मोमीन, लीग आर्गनाइजेसन आदि लगा हजारों संगठन है जो कि राजनीतिक दखल रखते हैं लेकिन जनता राजनीतिक मामलों व वोट देने के मामले में सब अपना स्थानीय हित ही देखते हैं
सिखों के अकाली व गुरुओ के नाम के देश भर में हजारों संगठन हैं बौद्ध, जैन यहाँ तक कि पारसीयों तक के संगठन है लेकिन चुनावों में जनता कुछ भी महत्व नही देती।
हर तबका थोड़ा-थोड़ा बिकाऊ तो है… कम-स-कम सतीश जैसे उसी तबके से हैं..क्योंकि जो खरीदने को तैयार हो वो सही कीमत पर बिकने को भी तैयार है
हां अगर इसी तरह के जातिय धार्मिक राजनीतिक दल हैं तो जनता में असर रखते हैं
कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनका मूल्य और ईमान बहुत सस्ता है। नेता जानते हैं की ऐसे लोगों की संख्या हमारे यंहां ज्यादा है और इन्हें आसानी से खरीद जा सकता है। बहुत सस्ते में। और ये लोग इन्हें खरीद लेते हैं। ऐसा बार – बार होता है। तभी देश को सही नेतृत्व नहीं मिल पाता है।
फिर हर एक में ३+१३=१६ इस प्रकार कुल १६० गोत्रीय ब्राह्मण जातियाँ हैं
फिर उनमें ४ से १० तक उपजातियाँ। कुल मिलाकर ३००-४०० प्रकार के ब्राह्मण।
फिर उनमें से अधिकांश एक दूसरे से भोजन पानी,, वैवाहिक संबंध तक नहीं रखते। ह
फिर ये हँसने लायक यह है किस गोत्र, प्रवर, बिस्वा, बिस्वांश का ब्राह्मण और उनमें एकता !, उपर से अध्यक्ष आश्चर्यजनक है !
वैसे #अखिलभारतीय लगा कर हर जाति धर्म वर्ण संप्रदाय के भारत भर मे हजारों संगठन भरे पड़े है और ज्यादातर ऐसे संगठन कायदे से किसी एक जिले के धर्म जाति विशेष के लोगों का भी प्रतिनिधित्व भी नही करते, साथ ही अन्य प्रांतों के किसी संगठन से कोई तालमेल नही होता है ऐसा भाषाई दिक्कतों का कारण भी हो सकता है।
जैसे ताजा उदाहरण युं समझे राजपूत करणी सेना का उत्तर की, रघुवंशी सेना व अ भा क्षत्रिय महासभा कोई जान पहचान दखल प्रभाव एक दूसरे प्रांत में नही हैं
इसी तरह मप्र, बिहार व उत्तर प्रदेश के कृष्णसभा, यदुवंशी व लोरिक दल का कोई लेनदेन नही है ना कोई बहुत बड़ी संख्या में जानता मानता तक है
और सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य सभा का काछी कोईरी महासभा दूर दूर तक कोई नाम लेवा तक नही है
वैश्य महासभा, वणिक महासभा,अग्रसेनी आदि हजारों संगठन है कोई किसी की नही सुनता ना ही जनता राजनीतिक मामलों कुछ सुनने को तैयार रहती है
अब संप्रदाय व धर्म के आधार पर भी जान सकते है आंध्र व कर्नाटक के प्रसिद्ध श्रीराम सेना का और उत्तर के हिंदू चेतना दल का कोई एक दूसरे से मेल मिलााप नहीं ना ही जनता सुनती हैै
इसी तरह मुसलमानों के संगठन सुन्नी, शिया व बहाब बोर्ड है जो कि हर राज्यों में काश्मीर असम कर्नाटक केरल तक अलग अलग हैं सब ने नाम के पहले आल इंडिया लगा रखा है इत्ताहादुल, मोमीन, लीग आर्गनाइजेसन आदि लगा हजारों संगठन है जो कि राजनीतिक दखल रखते हैं लेकिन जनता राजनीतिक मामलों व वोट देने के मामले में सब अपना स्थानीय हित ही देखते हैं
सिखों के अकाली व गुरुओ के नाम के देश भर में हजारों संगठन हैं बौद्ध, जैन यहाँ तक कि पारसीयों तक के संगठन है लेकिन चुनावों में जनता कुछ भी महत्व नही देती।
हर तबका थोड़ा-थोड़ा बिकाऊ तो है… कम-स-कम सतीश जैसे उसी तबके से हैं..क्योंकि जो खरीदने को तैयार हो वो सही कीमत पर बिकने को भी तैयार है
हां अगर इसी तरह के जातिय धार्मिक राजनीतिक दल हैं तो जनता में असर रखते हैं
कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनका मूल्य और ईमान बहुत सस्ता है। नेता जानते हैं की ऐसे लोगों की संख्या हमारे यंहां ज्यादा है और इन्हें आसानी से खरीद जा सकता है। बहुत सस्ते में। और ये लोग इन्हें खरीद लेते हैं। ऐसा बार – बार होता है। तभी देश को सही नेतृत्व नहीं मिल पाता है।
और इस तरह के जातिय व धार्मिक संगठनों का देश भर में कोई व्यापक प्रभाव नही है वैसे इस देश में ऐसे संगठन अवश्य सफल व प्रभावशाली हो सकते थे किन्तु नस्लिय, भाषाइ, सांस्कृतिक, रहन सहन व क्षेत्रीय विषमता आड़े आ जाती है और ये संगठन लाचार हो जाते हैं।