ब्लॉग आर्काइव

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

The Open Society and Its Enemies & Shrimadbhagwadgeeta/ सहिष्णुता या सहनशीलता व असहिष्णुता असहनशीलता कब असहिष्णुता हो जाती है और कोई कहां कब तक सहिष्णुता को ढो सकता और अंतत: परिणाम क्या होगा


सहिष्णुता या सहनशीलता असहिष्णुता असहनशीलता,
सहिष्णुता कब असहिष्णुता हो जाती है 
और कोई व्यक्ति व समाज कहां तक कब तक सहिष्णुता को ढो सकता है 
और अंतत: परिणाम क्या होगा
इसी पर 
'
कार्ल हॉपर ' ने "The Open Society and Its Enemies"(खुला समाज और इसके शत्रु) में उन्होंने सहिष्णु समाज और सहिष्णुता या सहनशीलता का समर्थन करने वालों को आगाह करते  हुए कहते है की " The end of the high-tolerance, this should be the end of tolerance अर्थात अत्याधिक सहिष्णुता या सहनशीलता का अंत, सहिष्णुता या सहनशीलता के ही अंत से होना चाहिए.
 अर्थात यदि  अत्याधिक सहिष्णुता  उनके साथ भी रक्खेंगे, जो सहिष्णु नही है या वे लोग जिनकी भावनाए तुरंत आहात होती है, और सहनशील समाज भावनाओ के प्रति बहुत ज्यादा सहनशील है तो सहनशील लोगो के साथ  उनके  समाज का भी अंत निश्चित है.
यदि अपने समाज के असहनशील तत्वों से, आप अपने सहनशील समाज की रक्षा के लिये आगे नही आते हैं,
तब आपका और आपके समुदाय का अंत निश्चित है.
मतलब यह की एक पक्षीय सहनशीलता या सहिष्णुता अकर्मण्य व निरीह बना देती है. 

और सहिष्णुता या सहनशीलता के चरम या  पराकाष्ठा का सबसे उत्तम  उदाहरण भारतीय सनातन शास्त्रो के सबसे प्रमुख पवित्र ग्रंथ श्रीमदभग्वद मे श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मे देखते है अर्जुन के रूप मे सबसे महान "सहिष्णु" व्यक्ति उल्लेखित है इतना महान सहिष्णु व्यक्ति संभवत: कोई आज तक हुआ ही नहीं.
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥१-४५॥

तब
कूरु क्षेत्र में सब परिचितों को ही चारो ओर देख कर अत्यंत व्यथित सहिष्णु हो अर्जुन 
योगराज श्री कृष्ण से बोले
ओह हे श्रेष्ठ 
हम मानव हत्या का जघन्यतम महापाप अपराध को करने के लिये आतुर हो यहाँ युद्ध भूमि में खडे हैं। 
वह भी तुच्छ राज्य और सुख के लोभ में अपने ही स्वजनों परिचितों को मारने के लिये व्याकुल हैं।
हे सुदर्शन धारी यह कतई धर्म नहीं है 
भले ही मेरे समक्ष मेरे परिचित अधर्मी अधम हो।

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥१-४६॥
हे प्रभू ये सभी मुझे से परिचित है मुझसे इन लोगों का विरोध करना मेरे द्वारा संभव नहीं हो पा रहा है, भले ही मेरे शस्त्र उठाये बिना भी ये धृतराष्ट्र पुत्र हाथों में शस्त्र धारण किए मुझे इसी युद्ध भूमि में मार भी डालें, 
तो वह मेरे लिये (युद्ध करने की जगह) सर्वथा उचित ही होगा।

एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥१-४७॥
यह कह कर शोक उद्विग्न हृदय से अर्जुन अपने धनुष बाण छोड कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये।

तब लेकिन एही अर्जुन जब सब ज्ञान व्  सत्य जानलेते है तो धर्म की स्थापना के लिए युद्ध करते है किन्तु सोलह अक्षहुणि  सेना के विनाश के बाद शांति के स्थापना कर पाते हैसहिष्णुता या सहनशीलता असहिष्णुता असहनशीलता,