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रविवार, 15 नवंबर 2015

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य एवं ध्रुवस्वामिनी एक महान ऐतिहासिक प्रेम कथा जो इतिहास के पन्नो में खो गयी.......अंतिम भाग...........

सम्राट रामगुप्त की आज्ञा पाकर सैनिको द्वारा युवराज चन्द्रगुप्त को पकड़ कर पाटिलपुत्र  लाया गया रामगुप्त ने अपनी  मंगेतर  कुमारी ध्रुवदेवी के ऊपर चन्द्रगुप्त  के कुदृष्टि रखने का आरोप लगया जिसका प्रमाण न देसका जबकि चन्द्रगुप्त ने अनर्गल मिथ्या आरोप बता प्रतिवाद किया और सम्राट रामगुप्त ने राजपुरोहित से दण्डव्याख्यान में पूछा की क्या इस अपराध के लिए मृत्यु दंड दिया जासकता है,
 जिस पर राजपुरोहित ने बताया की -सम्राट कुमारी ध्रुवदेवी पर कुदृष्टि या आसक्ति का कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है किन्तु यदि ऐसी घटना हुई है तो भी आसक्ति आपकी मंगेतर बनाने के पूर्व की हो सकती क्यों की आप का सन्देश जाने के पश्चात युवराज को बंदी बनालिया गया था, किन्तु पर स्त्री के   के प्रति आसक्ति रखने का दंड धर्मानुसार राज्य निष्काशन ही है साथ में कुमार को समस्त राजकीय पद एवं अधिकार से तत्काल वंचित कर दिया जाये.

और चन्द्र गुप्त को तत्काल गुप्त राज्य की सीमा  से निष्काषित कर दिया गया साथ में सम्राट रामगुप्त द्वारा ध्रुवदेवी से विवाह एवं अश्वमेघ यज्ञ के आयोजन की घोषणा भी की गयी.


विवाह का उत्सव अभी पूर्णतया संपन्न भी नहुआ था की सैनिक गुप्तचरों ने आकर सम्राट रामगुप्त को बताया की शकराज के पुत्र रूद्रसिम्हा ने आक्रमण कर अश्वमेघ के अश्व को पकड़ लिया है और तेजी से राजधानी के ओर विनाशक ढंग नागरिको की हत्या लूटपाट  करते बढे चले आरहा है
सम्राट रामगुप्त ने पूछा की- क्या रूद्रसिम्हा को हमारे पिता समुद्रगुप्त द्वारा किये गए उसके राज्य का विनाश भी याद नहीं है,  हमारी विशाल सेना उससे कैसे हार गयी, कौन है उसके पीछे जहाँ से उसे इतने शक्ति प्राप्त हुई है.
सैनिक गुप्तचरों ने बताया की सैन्य प्रमुख घायल होने के बाद राज नेतृत्व न होने से सेना बिखर गयी, और सम्राट समुद्रगुप्त के मृत्यु का समाचार मिलते ही साम्राज्य के पराधीन राज्य रूद्रसिम्हा की सहायता कर रहे है यही मुख्य शक्ति है और रूद्रसिम्हा के आचार्य मिहिरदेव प्रमुख रणनीतिकार है
तब
सम्राट रामगुप्त ने  विशाल सेना के साथ रूद्रसिम्हा पर आक्रमण को निकला किन्तु उज्जैन के निकट रूद्रसिम्हा की सेना ने चारो ओर से रामगुप्त घेर लिया, जिससे रामगुप्त डर कर अंततः  संधि का प्रस्ताव रखा, संधि के प्रस्ताव में रूद्रसिम्हा ने दिया उसमे हाथी घोड़े वस्त्र रत्न स्वर्ण और रामगुप्त मगध छोड़ के समस्त साम्राज्य त्याग कर दे  एवं सबसे विशेष बिंदु संधि का था वो यह की ध्रुवदेवी का त्याग करदे और ध्रुवदेवी को रूद्रसिम्हा के पास भेज दिया जाये।
 रामगुप्त ने सभी शर्तो को स्वीकार कर लिया और रानी ध्रुवदेवी को रूद्रसिम्हा के महल में भेजने का आदेश देदिया.
ध्रुवदेवी यह समाचार सुनते ही राजधानी के सामंत व् अमात्यो के राजपरिषद सदस्यों को बुलाकर उनसे पूछा - क्या राज्य की रानी की यह स्थिति हो गयी है की उसका मूल्य निश्चित किया जारहा, क्या संधि के निर्जीव  वस्त्रो रत्नो से भी कम मोल हो गया जीवित स्त्री का, कमसे  कम एक स्त्री होने का सम्मान तो दिया जाये हमे, क्या कोई वीर नहीं रह गया है इस मगध धरा पर, आप लोगो के ज्ञान व् धर्म शास्त्र क्या कहते है क्या यही महान सम्राट समुद्रगुप्त का राज्य है
सामंत व् अमात्यो के राजपरिषद के सदस्यों ने बताया की-  हे देवी हम राजनितिक विभागों के ज्ञाता है सो नीति व्  परिस्थिति के अनुसार पति का आदेश स्वीकार करना ही किसी भी स्त्री का प्रथम कर्तव्य होता है और ऊपर से यह तो राजाज्ञा है देवी। इसे स्वीकार करना ही होगा।
ध्रुवदेवी सभी सामंत व् अमात्यो को स्त्री अस्मिता की दुहाई दी किन्तु वे नहीं माने और ध्रुव देवी को रूद्रसिम्हा के महल में भेजने का निर्णय लिया गया.

रामगुप्त की कायरता का समाचार व् ध्रुवदेवी को रूद्रसिम्हा के महल में भेजने का निर्णय मिलने पर युवराज चन्द्रगुप्त ने पूर्व के सैन्य प्रमुख शेखर स्वामी व् अपने समर्थक सामंत कुमारो के साथ  मिल कर ध्रुवदेवी के रक्षा की योजना बनाया और स्वयं नारी वेश में ध्रुवदेवी के साथ  रूद्रसिम्हा के महल को चला.

 ध्रुवदेवी ने नारी वेषधारी युवराज चन्द्रगुप्त को प्रथम तो पहचाना नहीं किन्तु जानने के बाद बोली- हे कुमार आपने मेरे लिए इस प्रकार का संकट मोल क्यों लिया और इस दैत्य के महल में चले आये है एक अभागिन स्त्री को उसकी  नियति पर छोड़ देते जिसे पिता पति राज्य समाज सभी ने त्याग दिया, किसीने आश्वासन तक न दिया हो तो  भला उसके लिए आप क्यों, जाओ आप अपने राज्य, नागरिको व् समाज की रक्षा करो. अब तो हम इस  रूद्रसिम्हा नमक दैत्य का ग्रास बनने ही जारहे है एक स्त्री के अस्मिता के मूल्य पर राज्य का निर्माण, आने वाला इतिहास महान गुप्त साम्राज्य निश्चय ही स्वर्ण अक्षरो  में लिखेगा।

युवराज चन्द्रगुप्त बोले - हे देवी हम सत्यतः बोल रहे है की केवल इस राष्ट्र के स्त्री के सम्मान व् अस्मिता की रक्षा के लिए ही आये है अब आप तो हमारी प्रेयसि भी नहीं रही, यदि हमने इस महान  राष्ट्र के नागरिक होने का प्रमाण न दिया और इस देश की  स्त्री के सम्मान व् अस्मिता की रक्षा न कर सके तो यह आर्यव्रत की भूमि सदैव के लिए कलंकित हो जाएगी और कोई भी आक्रांता यदि कभी इस भूमि पर आएगा तो सदैव स्त्री के अस्मिता को कलंकित व् पददलित करने का प्रयास ही करेगा, अतः हे देवी इस  रूद्रसिम्हा नमक दैत्य को इस कुकृत्य का दंड देना आवश्यक है ताकि फिर  कोई ऐसी नीचता का साहस न कर सके. और हे देवी पुरुष का धर्म ही है स्त्री रक्षा का और यदि वचन दिया है तो प्राणांत तक हम ये वचन निर्वाह करेंगे, अन्यथा नारी जगत का पुरुष से विश्वास भंग हो जायेगा, साथ में आर्यव्रत व् भारत भूमि सदैव हमे कलंकित ही कहेगा

 ध्रुवदेवी बोली- हे कुमार युवराज क्या समस्त भारत भूमि जो आज गुप्त साम्राज्य की वधु के पारितोषिक के रूप में प्रदान कर दी गयी है से परिचित न हो गयी होगी, किसी को दंड देने से भर से एक स्त्री का सम्मान, अस्मिता पुनश्च मिल पायेगा।
 और इसी वार्तालाप के बीच भयंकर अट्टहासः करते हुए  रूद्रसिम्हा अपने अनुचरों के साथ आया किन्तु दो दो स्त्रियों (ध्रुवदेवी व् स्त्री वेषधारी चन्द्रगुप्त ) को देख आश्चर्य के मारे गंभीर हो गया और पूछा की - हे इंद्र की अप्सराओं के समान रूपवतियो  तुम में से कौन ध्रुवदेवी है, मैंने जैसा सुना था की विश्व में ध्रुवदेवी के सामान सुंन्दर रूपवान कोई दूसरी अन्य स्त्री इस धरा पर है ही नहीं, किन्तु मेरे गणो की सुचना तो निरर्थक निकली यहाँ तो तुम दोनों एक से बढ़ कर एक रूपसी हो, किन्तु बताओ तुममे से कौन ध्रुवदेवी है,

स्त्री वेषधारी चन्द्रगुप्त बोला  - मै ही ध्रुवदेवी हूँ महाराज।

ध्रुवदेवी-  हे कुमार( चन्द्रगुप्त से ) क्यों  अपने आप को संकट में डाल रहे हो, और एक निरीह स्त्री का उपहास कर रहे हो,
और हे  नीच धर्महीन पुरुष रूद्रसिम्हा एक निरीह अबला तुम्हारे सम्मुख उपस्थित है अपने पुरुषत्व को एक अबला का  समस्त सन्सार में अपमान कर के स्त्री विजय के रूप में प्रचारित कर प्रमाणित करने सुअवसर है

रूद्रसिम्हा- हे देवियो स्त्री तो भोग्या होती है और महान विजेता समुद्रगुप्त के राज्य के  विजय के स्मरणार्थ उस कुल की स्त्री का मेरे राजमहल में होना आवश्यक है, युद्ध तो धर्महीन हो के ही लड़े जाते देवी है और निश्चय ही सुंदरियों तुमइस धरा पर पारितोषिक हो, तो किसी कापुरुष की रानी बन के रहने से उत्तम है की महाबली रूद्रसिम्हा के भुजाओ का आवरण स्वीकार कर लो,
 चन्द्रगुप्त से रूद्रसिम्हा के कथन सुने नहीं गए और सावधान बोल कर अपना खड्ग निकाल लिया और महल में उपस्थित रूद्रसिम्हा के समस्त गणो व् सैनिको की हत्या कर कर दी,
रूद्रसिम्हा को व्यक्तिगत खड्ग युद्ध में पराजित करने के पश्चात घायल अवस्था में रूद्रसिम्हा को महल के तोरण द्वार पर ले गया, और उसके राज्य के नागरिको  के समक्ष स्त्री अपमान का आरोप लगते हुए रूद्रसिम्हा के ह्रदय में खङ्ग डाल दिया, रूद्रसिम्हा की भयंकर मृत्यु देख उसके किले में अफरातफरी मच गयी, जिसका लाभ उठा के शिखर स्वामी व् सामंत योद्धाओ ने रूद्रसिम्हा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और रामगुप्त को मुक्त करा लिया
 रामगुप्त ध्रुवदेवी से उसी क्षण अपने सैनिको के साथ मिलने आया- बोला हे देवी देखो किस प्रकार हमने दुष्ट रूद्रसिम्हा को दंड देकर तुम्हारी रक्षा की, गर्व करो की  तुम गुप्त साम्राज्य के स्वामी की भार्या हो, आओ पाटिलपुत्र चलते है वहां विजय उत्सव मनाया जायेगा।

ध्रुवदेवी कुपित होकर बोली - हे निर्लज्ज पुरुष तुमने किसकी रक्षा की है यह जग विदित है और हमने भी देखा, और स्वयं की रक्षा हेतु पत्नी एक स्त्री के अस्मिता का संव्यवहार परपुरुष से कर के किस मुख से मुझे अपनी भार्या कह रहे हो,

रामगुप्त- (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) हे देवी यह क्या कह रही हो तुम मेरी भार्या होने से कैसे माना करसकती हो, समस्त समाज में अग्नि व् देवो को साक्षी मान विवाह हुआ है हमारा, 
फिर चन्द्रगुप्त के ओर देख कर बोला ओह यह राज्य निष्काषित अपराधी  चन्द्रगुप्त यहाँ क्या कर रहा है, यह तुम्हारे ऊपर आरम्भ से ही कुदृष्टि रखता था  ओह निश्चय ही इसी ने तुम्हे भड़काया होगा, यह सदैव से मेरे विरुद्ध षड्यंत्र करता रहा है, सैनिको इस राजाज्ञा द्रोही को बंदी बनालो,
सैनिको ने चन्द्रगुप्त  के हाथो में बेड़ियाँ डाल दी तभी सेनानायक शिखर स्वामी व् अन्य सामंत गण वहां आ गए,
 कुपित ध्रुवदेवी बोली- अरे मुर्ख  किस मुख से भार्या कह रहे हो क्या तुमने वैवाहिक वचनो अनादर नहीं किया , परपुरुष के दासी बनने को न भेजा, क्या  रजाज्ञा पे हस्ताक्षर व् मुद्रिका तुम्हारे न थे, युवराज चन्द्रगुप्त से मेरे संबंधो को लेकर संदेह रखने वाले कापुरुष, मेरे स्वाभिमान व् अस्मिता का  बारम्बार अपमान करने वाले,  इन्होने (चन्द्रगुप्त) ही शत्रु के मुख में प्रवेश कर मेरी रक्षा की है, तुम किसी भी प्रकार से मेरे स्वामी होने के योग्य नहीं हो न ही मै मानती हु,  हे सामंत गण व् राजपार्षद स्वामी होने की योग्यता की व्याख्या आप ही करे नीति धर्म क्या कहता  है,

सभी राजपार्षदों ने ध्रुवदेवी के कथन से सहमति व्यक्त की और रामगुप्त की अयोग्यता को स्वीकार किया, तब

रामगुप्त- (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) सब के सब द्रोही हो गए, सम्राट के प्रति कोई सम्मान व् भय नहीं है, मृत्यु दंड निश्चित है सैनिको सभी सामंत व् राजपार्षदों को बेड़ियाँ पहनाओ और मस्तक धड़ से अलग कर दो.

तभी सेनानायक शिखर स्वामी बोले- यदि सम्राट को एक स्त्री व् गुप्त साम्राज्य की वधु की रक्षा सहास का नहीं, देवी की प्रश्नो का उत्तर देने का साहस नहीं, एक अबला के प्रति नैतिक पराजय स्वीकार नहीं, किन्तु   सामंत व् राजपार्षदों की हत्या का साहस है, हम ऐसे व्यक्ति को सम्राट नहीं मानते, कोई भी सैनिक किसी को हानि नहीं पहुचायेगा, नए सम्राट का निर्णय अब पाटिलपुत्र में सामंत व् राजपार्षदों की सभा में होगा।

रामगुप्त- हमे सब ज्ञात हो चूका है ये सब षड्यंत्र है पाटिलपुत्र में नहीं निर्णय यही हो जायेगा की सम्राट कौन होगा ये मूल षड्यंत्रकारी राज्य निष्काषित का जीवन समाप्त कर दिया जाये,  ( उद्विग्न व्याकुल हो हाथ में खड्ग लिए चन्द्रगुप्त को मारने को ततपर हुआ)
किन्तु उससे पूर्व ही सेनानायक शिखर स्वामी ने रामगुप्त का सर धड़ से अलग कर दिया और चन्द्रगुप्त को मुक्त कर दियागया,
राजसिंहाशन के रिक्त न रहने देने की नीति के कारन सामंत व् राजपार्षदों ने चन्द्रगुप्त को शकराज रूद्रसिम्हा के दमन के परिणाम स्वरुप विक्रमादित्य की उपाधि से विभूषित करते हुए सम्राट स्वीकार कर लिया,


और ध्रुवदेवी ने अपने प्राणोत्सर्ग का निश्चय किया किन्तु
नव नियुक्त सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने कहा- हे महा देवी प्राणोत्सर्ग के पाप का ऐसा अनर्थ न करो, भारतवर्ष का नव नियुक्त सम्राट आपका दास बनने को प्रस्तुत है, हे वीरांगना क्या नव नियुक्त सम्राट का स्वामी एव भारत भूमि का स्वामी बनना स्वीकार करोगी, हम आपके समक्ष विवाह का प्रतव रखते है.

ध्रुवदेवी ( अश्रुपूरित नेत्र लिए बोली)-  हे सम्राट इस पददलित अपमानित स्त्री को सहभागिनी बनाके क्यों अपने सम्मान को तुच्छ कर रहे है , समाज में हमे कभी स्वीकार नहीं करेगा, हमारा प्राणोत्सर्ग करदेना ही हमारे स्त्री अस्मिता के अनुरूप उचित होगा,

सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य - हे देवी देश व् समाज अवश्य ही स्वीकार करेगा आपको , यदि हम नागरिको व् समाज में कोई प्रतिमान स्थापित नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा, समाज के नियमो प्रथाओ को बदलने शुभारम्भ आपको ही करना होगा, क्या स्त्री के सम्मान में ये भरत भूमि स्त्री को स्वयं की स्वामिनी स्वीकार नहीं करेगा, हे देवी हमारा समाज इतना निष्ठुर नहीं है हम तो देवी के उपासक है ।  क्या राष्ट्र हित में भी आप राष्ट्र की व्  हमारी स्वामिनी नहीं बनना चाहेगी, भारतवर्ष का वर्तमान एवं भविष्य आपके निर्णय पर निर्भर है आपका प्राणोत्सर्ग भारत का प्राणोत्सर्ग होगा, यदि आप भारत की स्वामिनी बनती है तो स्वर्णयुग का सूत्रपात होगा।
इस प्रकार समझाने पर ध्रुव देवी मान गयी तब

सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य - ने घोषणा किया की सम्राट समुद्रगुप्त की कुलवधू  तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की भार्या व्   भारत भूमि की स्वामिनी देवी ध्रुवदेवी होंगी, ध्रुव ही स्वामिनी होंगी
ध्रुवस्वामिनी