ब्लॉग आर्काइव

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

चेन्नई के साथ डूबते और भी शहर है

जलवायु परिवर्तन से होने वाली समस्याएं पिछले कुछ वर्षों से बढ़ गयी है मसलन बाढ़, तूफान, अप्रत्याशित मूसलाधार वर्षा, सूखा एवं बेहद गर्मी। पूरी दुनिया में इन सब आपदाओं से बड़ी भारी मात्र मानवीय व् आर्थिक क्षति हुई है, 

विश्व में भारत प्रमुख कार्बन उत्सर्जक देशों में तीसरे पायदान पर है लेकिन चेन्नई ब्रिटिश लोगों ने १७वीं शताब्दी में एक छोटी-सी बस्ती मद्रासपट्ट्नम का विस्तार करके इस शहर का निर्माण किया था। उन्होंने इसे एक प्रधान शहर एवं नौसैनिक अड्डे के रूप में विकसित किया। बीसवीं शताब्दी तक यह मद्रास प्रेसिडेंसी की राजधानी एवं एक प्रमुख प्रशासनिक केन्द्र बन चुका था में आई बाढ़ का  जलवायु  परिवर्तन ही मात्र प्रमुख कारण नहीं है, पिछले पंद्रह बीस वर्षो के  बेतरतीब व् अनियोजित विकास भी प्रमुख उत्तरदायी है प्रकृति पूजकों के देश में हालत यूँ है की नदी, पहाड़ जंगलों आदि प्राकृतिक स्थलों पर मानवीय अतिक्रमण व् कचरे के निस्तारण के स्थान बन जाने के कारण इको सिस्टम में  व्यापक परिवर्तन हुऐ है, चेन्नई की दो प्रमुख नदिया कुवम व् अड्यार जिसमे भारी मात्रा कचरे को निस्तारित किया जाता है  जिससे इनकी गहराई कम हो गयी है, मेरे एक के मित्र ने बताया की अड्यार नदी  के तटों पर अतिक्रमण कर आज बड़े बड़े मॉल व्  बंगले बनाये जाचुके है  और उसकी स्थिति नाले के जैसे हो गयी है, अर्थात उसका प्रवाह क्षेत्रफल ही सीमित हो गया है यदि वह अपने पुराने स्वरुप में होती तो संभवतः इतनी तबाही न होती। वहां की चेम्बरमबक्कम व् पुलिकट जैसी झील का भी क्षेत्रफल धीरे धीरे अतिक्रमण से घटता रहा है चेम्बरामबक्क्म एक मात्र झील है जिससे चेन्नई शहर को पीने के पानी की आपुर्ती होती है।। भारत के प्रमुख महानगर चेन्नई में यदि जल निकासी के यदि उचित प्रबंध नहीं है तो पुरे भारत की स्थिति तो बेहद  भयावह व्  सोचनीय ही होगी।



सी ई ई डब्लू की रिपोर्ट के अनुसार भारत की एक चौथाई जनसंख्या जो की गंगा बेसिन के किनारे रहती है और लगभग साठ प्रतिशत लोग इसके सहारे कृषि से जीवकोपार्जन में लगे है यदि अतिक्रमण व्  इसी प्रकार कार्बन उत्सर्जन होता रहा तो मौजूदा समय के मुकाबले बाढ़ संभावनाएं छह गुना बढ़ जाएगी। और यह सच इस लिए भी है क्योंकी  भारत के अन्य महानगरो में थोड़ा भी सामान्य से अधिक वर्षा होते ही बाढ़ जैसे हालात हो जाते है जैसे झेलम के कारण श्रीनगर में, मीठी नदी के जरा से उफान से मुंबई जैसे महानगर बाढ़ जैसी भयंकर आपदा के चपेट में आजाता है। भारत में बढती जनसँख्या, उसके बसावट व् रोजगार नियोजन के लिए व्यापक तौर पर औद्योगीकरण के लिए भूमि अधिग्रहण किया गया, प्राकृतिक संसाधनो का दोहन किया गया लेकिन उस अनुपात में नगर नियोजन एवं पर्यावरण के संरक्षण  पर केंद्र व् राज्यों ने कुछ खास ध्यान नहीं दिया जिससे जलवायु परिवर्तन के कारन होने वाली आपदाओं से हालात  बदतर होते जारहे है।


 भारत की कृषि जो की मानसूनी वर्षा पर निर्भर है जलवायु परिवर्तन के कारन पिछले पचास वर्षो से  मानसूनी वर्षा में धीरे धीरे कमी होती देखी गयी है जिसका मुख्य कारण नमी युक्त हिमालयी  पश्चिमी शीत हवाएं रुक सी गयी है। और तो और कही भूस्खलन तो  किसी क्षेत्र में सुखा, कहीं तापमान वृद्धि से गरमी तो कोई क्षेत्र कई दिनों तक धुंध से आच्छादित रहता है। साथ ही जल प्रप्ति के लिए भूगर्भ जल के अंधाधुंध दोहन  से जल स्तर चालीस फिट से अधिक नीचे गिर गया वो भी मात्र कुछ ही वर्षो में  और इसी तरह के हालत बने रहे तो आने वाले तीस वर्षो में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगभग चालीस प्रतिशत कम हो जाएगी।

भारत व दुनिया के अन्य देशों के नीति नियंताओं को जलवायु संरक्षण के मामले में भूटान सरीखे देश से सीख लेने लायक  है भूटान की नीति ग्रास नेशनल हैप्पीनेस इंडेक्स के हिसाब से बनती है जिसमे की हरित वन क्षेत्र साठ प्रतिशत से काम नहीं होने देना है इसी क्रम में भूटान ने कुछ दिनों  पहले घंटे भर में पचास हजार पौधे रोपण कर विश्व रिकार्ड बनाया। तो  जनता, सरकार व् नीति नियंताओं को  कामचलाऊ वाले तरीके को छोड़ अब  गंभीरता से पर्यवरण संरक्षण की दिशा में कार्य करना होगा अन्यथा आने वाली पीढ़ियों को स्वछ वातावरण देने का संकल्प कभी संभव नहीं होगा।